क्या भीड़ का चेहरा नहीं होता ?
कहते हैं कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता वास्तव में देखा जाए तो यह बात अपनी जगह सही भी है जब एक जगह बहुत अधिक संख्या में लोग एकत्रित होते हैं तो वहां सब अपनी व्यक्तिगत पहचान खोकर सामुहिक रूप में परिवर्तित हो जाते हैं लोगों के इसी सामुहिक रूप को भीड़ के नाम से सम्बोधित किया जाता है, आमतौर पर यह भीड़ किसी खेल प्रतियोगिता, सिनेमा घरों, मेलो या फिर प्रदर्शनियों में नज़र आती है, लेकिन यही भीड़ अपने नये रूप में नज़र आ रही है वो भीड़ उम्र और मानवीय संवेदनाओं से पूर्णतः रिक्त नज़र आती है ये अमानवीय भीड़ किसी भी निहत्थे, निर्दोष, कमज़ोर इंसान को कहीं भी किसी भी बहाने से घेर कर पीट-पीट कर मौत के घाट उतार देती है, बहुत आश्चर्य इस बात पर होता है कि भीड़ में अधिकतर सभी एक दूसरे से अपरिचित होते हैं फिर भी बड़ी एक जुटता के साथ भीड़ अपने कार्य को अंजाम दे देती हैं यह विचारणीय प्रश्न है बहरहाल केवल अपनी घृणा या संदेह के आधार पर किसी निहत्थे कमज़ोर इंसान को मौत के घाट उतार देना उससे उसकी ज़िन्दगी छीन लेना केवल इंसानियत को ही शर्मसार नहीं करता बल्कि हमारी कानून व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है।
यह दुःखद वास्तविकता अपनी जगह है कि भीड़ द्वारा की गई हत्याओं को न्यूज़ चैनल और समाचार पत्रों में प्रमुखता नहीं दी जाती और उस पर हमारी लचर कानून व्यवस्था भीड़ की पहचान नहीं कर पाती और हम सब देखते रह जाते हैं और अपराधी बहुत सहजता से अपराध करके भीड़ में कहीं गुम हो जाता हैं भीड़ को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि जिस बेकसूर इंसान को उन्होंने बेमौत मारा है उसे अकेला नहीं बल्कि उसके साथ उसके पूरे परिवार को भी मार दिया है, लेकिन अफसोस इस दर्द को दर्द देने वाला कभी नहीं समझ सकता जब तक कि वह स्वयं इस दर्द से नहीं गुजरता बहरहाल प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता? होता है न नफ़रत, आक्रोश, घृणा यह वो चेहरा है जो इंसान को इंसान नहीं रहने देता, आज भीड़ द्वारा निर्दोष लोगों की हत्याओं का आलम यह है कि लगभग हर महीने ही कोई न कोई घटना हमारे समक्ष उपस्थित हो जाती है भीड़ द्वारा की गई हत्याएं हमारे समाज का वो आईना है जिसे हम देखना नहीं चाहते और अगर हम इस आईने को देखने का प्रयास करते हैं तो बहुत कुछ टूटा और बिखरा नज़र आता है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हमारी मीडिया तो मीडिया हमारी सरकार भी इस बात को गम्भीरता से नहीं लेती और अगर लेती तो आज इन दुःखद घटनाओं की पुनरावृत्ति कभी न होती, और जो बात हमारे देश को नुकसान पहुंचाती हो उस पर को कठोर कानूनी कार्रवाई न होना उस पर मौन रहना अपराधियों के हौसले बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और वैसे भी जहां हत्यारों को पुरस्कृत किया जाता हो वहां कुछ कहने सुनने को शेष नहीं रह जाता बहुत अफ़सोस होता है कि स्वयं को सभ्य और आधुनिक कहलाने वाले लोगों की सोच का स्तर क्या है बताने की आवश्यकता नहीं, मानसिकता बदले बिना देश का तो क्या इंसान का विकास भी संभव नहीं, यही भीड़ अगर एकजुट होकर देश की समस्याओं का एक एक करके समाधान करने का प्रयास करे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कामयाबी न मिले ख़त्म करना है तो हमारे देश की समस्याओं को करो और उस मानसिकता का करो जो इंसान को इंसान नहीं रहने देती।
डॉ फौजिया नसीम शाद