कोरोना काल और हम
कोरोना काल और हम
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कोरोना काल वाकई एक ऐसा विपरीत परिस्थितियों से उत्पन्न कठिन समय, जिसके प्रभाव से शायद ही कोई सुरक्षित रहा हो। कोई इसके चपेट में आकर इस दुनिया को अलविदा कह गया, तो कोई इसके संसर्ग में आये बगैर ही केवल हृदय में उपजे भय के कारण असमय एवं अनचाही मृत्यु का वरण कर हम सभी के नजरों से ओझल हो गये।
हमारे जीवन काल में जिसकी अवधि अधिक तो नहीं फिर भी पैंतालीस छियालिस वर्ष की तो है, इस अवधि में हमने एक से बढ़कर एक त्रासदियों को झेला, सुनामी देखा, भूस्खलन देखे, एक से बढ़कर एक जलजले देखे, महामारियों के भी कुछ एक दौर आये, किन्तु कोरोना काल का यह दौर सबसे विलग भय की पराकाष्ठा को पार करने जैसा रहा। इस महामारी ने हमें सोचने को विवश किया कि एक मनुष्य की क्षमता आखिर है कितनी।
ऑक्सीजन के सहारे टिकी अनगिनत सांसें और कोरोना के शिकार हुए लोगों की लाशों के अम्बार के बीच हमें इस वैश्विक महामारी का विनाशकारी प्रभाव केवल मानव जीवन और उसके स्वास्थ्य के साथ ही अर्थव्यवस्था तथा नागरिक असुविधाओं और कष्टों पर ही नजर आ रहा है। जबकि इस महामारी ने हमारा सदियों के अनुभवों और आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित सामाजिक तानाबाना और व्यवहार भी उतना ही नुकसान पहुंचा दिया है।
महामारी से बचने के लिए बनाई गई सामाजिक दूरियों ने न केवल मित्रों और रिश्तेदारों को दूर कर दिया बल्कि माता-पिता और पुत्र-पुत्रियों के बीच तथा भाई-बहनों के बीच भी खौफ तथा अलगाव की दीवार खड़ी कर दी है। असीमित विश्व की सीमाएं सिमट कर हमारे दरवाजे तक आ गई हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि इस महामारी को पर्यावरण में बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, जब तक सब कुछ बंद है, तो कार्बन उत्सर्जन रुक गया है। लेकिन जब दुनिया फिर से पहले की तरह चलने लगेगी तो क्या ये कार्बन उत्सर्जन फिर से नहीं बढ़ेगा? पर्यावरण में जो बदलाव हम आज देख रहे हैं क्या वो हमेशा के लिए स्थिर हो जाएंगे।
मैं मानता हूँ हर एक परिस्थिति में कुछ नाकारात्मक तो कुछ साकारात्मक पहलू निकल कर हमारे समक्ष खड़े होते हैं, उसी तरह विषम परिस्थिति के भी कुछ अपने साकारात्मक पहलू अवश्य रहे जैसे प्रदुषण कम होना , ऐसे माता-पिता जो अपने बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पाते थे, अपने ऑफिस और घर के कामों में अत्यधिक व्यस्त रहा करतते थे, उनको भी बच्चों के साथ समय व्यतीत करने का मौका मिला। इस दौरान माता-पिता ने भी सीखा कि बच्चों के साथ अच्छा समय बिताना कितना जरूरी और कितना खुशी देने वाला है। इससे पारिवारिक रिश्तों पर काफी पॉजिटिव असर पड़ा। परिवार के सदस्यों ने इस दौरान एक-दूसरे को समझना सीखा।
पिछले कुछ समय में इंसान का एक ऐसा रूप सामने आया, जिसको देखकर सभी हैरान रह गए। जरूरतमंदों की मदद करने से इंसान नहीं चूका, बेरोजगारों और निर्धन वर्ग की मदद इस समय सरकार के अलावा व्यक्तिगत तौर पर भी काफी की गई। इससे पता चला कि आज भी इंसान में इंसानियत जिंदा है।
इन कुछ एक साकारात्मक पहलुओ के अतिरिक्त जो नकारात्मकता दिखी वह कही अधिक और मानव मन को विक्षिप्त कर देने वाली रही।
सनातन धर्म के सोलह संस्कारों में से दाह संस्कार को अंतिम संस्कार माना जाता है और कुछ अन्य संस्कारों को चाहे कोई माने या न माने मगर इस संस्कार के बिना शवदाह करने को अधोगति माना जाता है। खुशी और गम में भी लोग पास नहीं आ रहे लोग पहले खुशी और गम के मौकों पर इकट्ठे हो ही जाते थे। इन दोनों ही अवसरों पर देश विदेश में रहने वाले रिश्तेदार एकत्र हो कर खुशी और गम के भागीदार बनते थे। आज कोरोना मरीजों की कुशल क्षेम जानने के लिए मरीज के पास जाना तो रहा दूर उसकी मौत हो जाने पर भी करीबी लोग मृतक के शव के पास नहीं जा रहे हैं।
त्योहार खुशियां बांटने के लिए ही होते हैं। ईद और होली जैसे गले मिलने वाले त्योहार तो खुशियां बांटने के साथ ही आपसी सौहार्द एवं भाईचारे की प्रतिबद्धता प्रकट करने के लिए होते हैं। जब से कोरोना का हव्वा खड़ा हुआ तब से होली बेरंग और ईद बेगानी हो गया। गले मिलना तो रहा दूर लोग एक दूसरे के निकट खड़े होने में भी डर रहे हैं।
कोरोना काल में सर्वाधिक रूप से जो चीज प्रभावित रही वह है शिक्षा व्यवस्था, स्कूल, कालेज लगातार बंद रहे, इस दौरान ऑनलाइन पढ़ाई से इस कमी को पूर्ण करने का प्रयास तो हुआ पर यह कितनी सार्थक है यह हम सभी जानते है।कुल मिलाकर यह दौर बड़ा ही कष्टदायक रहा है पता नहीं मानवमात्र को कबतक इस महामारी से निजात मिलेगी परन्तु एक बात तो है हम सभी इस दौर के लोग इतिहास के पन्नों में सर्वदा के लिए सुरक्षित हो गये।
पं.संजीव शुक्ल सचिन