कोमल अग्रवाल की कलम से, ‘जाने कब’
कोमल अग्रवाल की कलम से, ‘जाने कब’
जाने कब नजरों का एक इशारा हुआ
बात ही बात में दिल तुम्हारा हुआ।
वो अचानक ही आ मुझसे टकरा गए
बस घड़ी भर का ये खेल सारा हुआ।
जो कभी कंकड़ों सा चुभा आंख में
एकदिन वो ही आंखों का तारा हुआ।
वो तो एक ख्वाब था बस रहा ख्वाब ही
ना तुम्हारा हुआ ना हमारा हुआ।
साथ चल ना सके तुम भी सबकी तरह
बदनसीबी में अपना गुज़ारा हुआ।
हाँ भंवर था वहाँ तुमने छोड़ा जहां
अपना अपनों से ऐसा किनारा हुआ।
मैं ज़हर पी गई सिर्फ़ ये सोचकर
इसमे नुकसान क्या ना तुम्हारा हुआ।
रोया करती हैं नदियां गले उससे मिल
इसलिए ही समंदर है खारा हुआ।
फिर कमल की तरह वो न कोमल रही
दिल लगाना न फिर से गवारा हुआ।