कोमल अग्रवाल की कलम से ‘ इतना सोचा तुम्हें ‘
इतना सोचा तुम्हें रात भर , रात से कब सहर हो गई।
ख़्वाब आकर जगाते रहे , नींद तक को ख़बर हो गई।
याद हमको नहीं वो सफ़र , बिन तुम्हारे कभी जो कटा
तेरी हसरत से ही ज़िंदगी , ख़ूबसूरत डगर हो गई।
ना निगाहों से पैग़ाम दो , ना ही लफ़्जों से तुम काम लो इत्तफ़ाक़न मुलाक़ात जो , रास्ते में अगर हो गई।
नाम तेरा लिया तो नहीं , जिक्र तेरा किया तो नहीं
लिखते लिखते ये मेरी ग़ज़ल कब , तुम्हारी नज़र हो गई।
जब ज़माने के बाज़ार में , बेवफ़ा कह गया वो मुझे
एक लड़की जो ख़ुद गांव थी , जगमगाता शहर हो गई।
शौक था खेल था या की था , बेवफ़ाई का फ़न आदतन
एक तूफ़ां उठा और जुदा , साहिलों से लहर हो गई।
ख़्वाब की बात फ़िर जो चली , एक चेहरा पड़ा सामने
देखा करते हैं उस ख़्वाब को , ख़्वाब से ही गुज़र हो गई।
तेरी चुप्पी ने कोमल का दिल, इस तरह तोड़कर रखदिया
अब दिखाते हो क्यूँ ख्वाब तुम, उम्र जब ये बसर हो गई।