कोई न रहता उलझन में
22+22+22+22
तुम जो आ जाते जीवन में
फिर कोई न रहता उलझन में
विरहा में इक-इक पल भारी
आग लगी है मन उपवन में
भूल नहीं पाया हूँ इक पल
छवि तेरी देखूँ दरपन में
रोते रोते बीते जीवन
जी रहा हूँ जैसे सावन में
जीने को तो जी ही लूंगा
पर काटूँ कैसे यौवन में