कोई नहीं … आओ, साथ में मेरे
कोई नहीं…
आओ, साथ में मेरे
ले चलूं तुझे मैं…
सच से रूबरु कराने…
बर्दास्त न कर पाओ तो
छोड़ जाना साथ मेरा…
बढ़ कर धर लेना राह नया
जो अगर सच से मिलना हो…
आईने में कुरुप सा ही दिखना हो
तो चल परड़ना साथ मेरे
जीवन में हैं व्यघात बड़े…
तुम से गर न हो पायेगा
नदी सा मैं बढ़ जाउंगी
तुम्हें फ्लांग दूर कहीं दूर चली जाउंगी,
तुम कंकड़ बन पड़े रहना,
मैं समुन्द्र से मिल जाउंगी
नया तूफान लाऊंगी,
तुम्हें भी उसमें बहा ले जाऊँगी,
मैं सब कुछ समतल कर जाऊँगी
मैं नदी सी आगे बढ़ जाऊँगी…
…सिद्धार्थ