कॉर्पोरेट जगत और पॉलिटिक्स
राजनीति और कॉरपोरेट जगत के काम करने के तरीके में एक समानता है। राजनीति हो या कि कॉरपोरेट घराने , दोनों के सफलता का राज यही है कि शीर्ष पर आसीन लोग सबको अपने साथ ले कर चल सकने में सक्षम है या नहीं?
इसके लिए ये जरूरी है कि मैनेजमेंट के शीर्ष पर रहने वाले व्यक्तियों के दरवाजे स्वयं के साथ काम करने वालों के लिए खुले हो।
अकड़ कर रहने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। आपका बड़ा होना इस बात पर निर्भर करता है कि पार्टी का एक साधारण सा कार्यकर्ता आपसे बिना रोक टोक के मिल सकता है या नहीं?
यदि नेता अपने साथ काम करने वालों की बजाय कुछ गिने चुने खुशामद करने वालों के बीच हीं घिरे रहना पसंद करने लगे, तो इसका क्या दुष्परिणाम हो सकता है, राजनीति में घटने वाली आजकल की घटनाओं से ये साफ जाहिर होता है।
ठीक यही बात कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है। खुशामद करने वाले और जी हुजूरी करने वाले सदस्यों की बात सुनने के अलावा यदि प्रतिरोध का स्वर ऊंचा करने वालों की बातों को न सुना जाए तो इसमें उस घराने का हित कतई नहीं होता।
एक संस्था की मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि भीतर से उठते हुए असंतोष के स्वर को समझने में वो कितनी सक्षम है?
दूसरी बात , संस्था को अपने मूलभूत वैचारिक सिद्धानों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। हरेक राजनैतिक पार्टी का आधार कुछ आधार भूत सिद्धांत होते हैं।
काम करने के कुछ विशेष तरीके होते हैं हर संस्था के। एक विशेष लक्ष्य और लक्ष्य प्राप्त करने हेतु अपनाए गए तरीकों में हरेक संस्था अलग होती है।
कभी कभी ऐसे मौके आते हैं जब सैद्धांतिक रूप से मतभेद रखने वाले पार्टियों के साथ सहयोग तात्कालिक रूप से लाभदायक सिद्ध होते हैं। परंतु इसके दूरगामी परिणाम हमेशा पार्टी के हितों के विरुद्ध हीं साबित होते हैं।
यही बात कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है। हरेक कॉरपोरेट घरानों के काम करने के कुछ अपने विशेष तरीके और अपने मूलभूत आधार होते हैं। सबके अपने अपने कुछ मूलभूत सिद्धांत और वैचारिक आधार होते हैं।
इन सिद्धांतों का त्याग करके नए सहयोगी ढूंढने में कोई फायदा नहीं । याद रहे ये काम करने के ये वो हीं तरीके है जिस कारण एक संस्था का अस्तित्व इतने लंबे समय तक बना हुआ है। फिर मूलभूत सैद्धांतिक आधार से समझौता कर बनाए गए संबंध लंबे समय तक चल नहीं पाते ।
राजनीति में मिली जुली सरकारों का बनना और बिखरना और क्या साबित करता है? आखिकार राजनीति भी तो व्यक्तियों द्वारा हीं चलाई जाती रही है। दो भिन्न भिन्न प्रकार के पहियों पे चलने वाली गाड़ी आखिर कितने दिनों तक चल सकती है?
हरेक राजनैतिक पार्टी युवा पीढ़ी का बढ़ावा देना पसंद करती है। परंतु गर्म जोश के साथ साथ पुरानी पीढ़ी का साथ भी अति आवश्यक होता है सफलता के लिए।
जिस प्रकार देश , काल और परिस्थिति के अनुसार कभी त्वरित फैसले लेने जरूरी होते हैं तो कभी कभी किसी कदम के उठाने से पहले लंबे और गंभीर सोच विचार की जरूरत होती है।
एक हथियार का मजबूत होना जरूरी होता है परंतु इससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये कि हथियार से लक्ष्य का संधान करने वाले हाथ कितने सधे हुए है?
और यहां पे ये जरूरी हो जाता है कि उन हाथों ने बार बार इन तरह की परिस्थितियों का सामना किया है कि नहीं? उन हाथों को पर्याप्त अनुभव है या नहीं?
पुरानी पीढ़ी के अनुभव और नई पीढ़ी के जोश के बीच सामंजस्य स्थापित किए बिना ना तो कोई राजनैतिक पार्टी हीं आगे बढ़ सकती है और ना हीं कोई कॉरपोरेट घराना।
अक्सर ये देखा देता है कि सत्ता के नशे में संस्था के शीर्ष स्थानों पर विराजमान नेता सदस्यों से राय लिए बिना अपने फैसले थोपने लगते हैं। यदि सदस्यों पर फैसले लादने हैं तो थोड़ी बहुत उनकी भागीदारी भी बहुत जरूरी है।
यदि एक संस्था सदस्यों के कार्य के प्रति लगन की अपेक्षा करती है तो संस्था की भी जवाबदेही भी तो अपने कार्यकर्ता के प्रति होनी चाहिए। और ये काम अपने सदस्यों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किए बिना नहीं हो सकता।
याद रहे एक संस्था का सफल या असफल होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस संस्था में काम करने वाला हरेक सदस्य उस संस्था के प्रति कितना समर्पित है?
और अंतिम परंतु महत्वपूर्ण बात , बड़बोलेपन से बचना। राजनैतिक रूप से बड़बोलापन न तो केवल आपके नए नए प्रतिद्वंद्वियों को जन्म देता है, अपितु आपको कहीं ना कहीं अहंकारी भी साबित करता है।
ठीक यही बात कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है। किसी दूसरे के खिलाफ बोलकर या किसी और को नीचा दिखाकर आप स्वयं बड़े नहीं हो जाते।
बेहतर तो ये है कि बड़े बड़े बोल बोलने के स्थान पर आपके कर्म हीं आपकी आवाज हो । मितवादी और कर्म करनेवाले कहीं असफल नहीं होते, फिर चाहे ये राजनीति हो या कि कॉरपोरेट घराने।
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