कैंसे भूलूं मैं,मझ कशीर
तीन दशक से से भुला न पाया, मैं कैंसे भूलूं मझ कशीर।
घर आंगन वो वचपन के दिन, स्कूल कालेज पढ़ाई के दिन।
तीज त्यौहार मंदिर मेले, आतंक के शिकार आत्मीय जन।
अपनी माटी की खुशबू,कैंसे गुजरे हैं वादी विन।
जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर, कोई लौटा दे वे दिन।
तीन दशक से भुला न पाए, विस्थापन की पीर।
मैं कैंसे भूलूं मझ कशीर।।
विस्थापन के इन बर्षों में, कितने चिल्लै गुजर गए।
स्वर्ग से सुंदर घर द़ार थे मेरे, सभी राख के ढेर हो गए।
हमने इतने बर्षों में,मात पिता स्वजन खोए।
खो गई जुवान यादें बजूद, ज्यों जीवन विन शरीर।
तुम बताओ क्या क्या भूलूं,कैंसे भूलूं मझ कशीर।।
वो सुबह शीन की धवलता, स्वर्णिम किरणों की चकाचौंध।
मौसम सुहावने हरे भरे खेत, केशर क्यारी में ऊगती हुई पौध।
चिल्लै कंलांन के आगाज से पहले,पंजुरों को ढकना।
शीन चादर ओढ़े, मेरा घर अंगना।
आंखों में समाया हुआ है,आज भी वो मंजर।
भूले नहीं भुलाती, मैं कैंसे भूलूं मझ कशीर।।
खेल कूद और शीन पर गिरना,उठना और फिसलना।
शीन के गोले बना बना कर, एक दूजे पर उछालना।
कैंसे भूलूं मन मोहक दृश्य, अपनी वादी का पुराना।
आंख मेरी भर आती है,दिल में उठती है पीर।
कैंसे भूलूं मैं,मझ कशीर।।
न दर रहा,न दैर और न जमीन, ज्यों पानी विन मीन।
क्यों हुई कश्मीरी पंडितों की, दहशतगर्दी से दशा दीन।
अपने ही घर में हम हो गए अनजान,फकत रही कश्मीरी पंडितों की पहचान।
क्या ये हमारी बेवसी का मज़ाक है,या पंडितों की शान।
कोई तो हमें बताएं,हमारा क्या कसूर।
जिसकी लाठी उसकी भैंस, क्या यही है दस्तूर?।
जन्मभूमि को भूल न पाए, कैंसे भूलूं मझ कशीर।।
आखिर कब तक हम वेघर होंगे?
एक बार,दो बार,सात सात बार, आखिर कब तक सितम सहेंगे?
कब तक और ताने सुनेंगे,कब तक हमको डरपोक कौम कहेंगे?
कब तक हमारी बेवसी को, दरकिनार करेंगे?
फिर भी हमें मलाल नहीं, हमारी अमन पसंदगी जबाब नहीं।
हमारा शगल है, पढ़ना और पढ़ाना।
इंसानियत की राह पर बढ़ना और बढ़ाना।
हिंसा नहीं, प्रेम है, मेरी कौम की तासीर।
मानवता को कभी न भूले,कैंसे भूलूं मझ कशीर
अपने देश में हुए पराए,घर दर दैर सभी गंवाए।
कश्मीर की वुनियादी नस्ल हम, क्यों नाबुद की चौखट पर आए?
अपने ही देश में आखिर हम, शरणार्थी कहलाए?
फिर भी है विश्वास हमें, एक दिन मीगुजरद पर लौटेंगे।
वो घर आंगन वो गलियां, माटी की खुशबू लेंगे।
भूल नहीं पाएंगे हम, अपनी मझ कशीर।।