*** ” विवशता की दहलीज पर , कुसुम कुमारी….!!! ” ***
*** असीम रौनक , नत नयन ,
रेशम-सी बाल , बिखरी हुई ;
आँखों में अश्कों की अविरल धारा बह रही ।
बैठी बे-पनाह ओ , जग से करती फरियाद ;
अरमान मिटा अपने जिंदगी की ,
आशाओं के दीप टीम-टीम जला रही ।।
आज-कल और अभी क्या……? ,
हर दिन सुबह-शाम , अंधेरों में तब्दील हो रही ।।।
*** नीम की छाया में , बैठी बे-पनाह ,
बचपन की यादें जगा रही ,
शीला पर पैर फैला , सुशील-नादानी ,
सपनों में राज-महल सजा रही ।
शीतल मंद समीर बहती ,
कभी पल्लू उड़ा रही और
चंचल मन को गुदगुदा रही ;
अरमानी उपज के सपने संग ,
चंद घड़ी में ताजमहल दृश्य तालाश रही ।।
*** पर……..! ,
सपना क्या अपना होता है…? ,
फिर….!! वही असीम-अदृश्य ,
बंजर-भूखंड की परिदृश्य की चूभन ,
और आँखों में अविरल अश्रु बह
मन में असहनीय कसक कर जाती ।
थम जाती कभी , ओ मन की उद्गार ,
विरहणी-सी हो जाती , अबोध मन की विचार ;
कसक दर्द की , चुभ सीने में और बे-चैन कर जाती ।।
क्षण-क्षण में आती याद ,
ओ दादा जी की सीखें :
” मुनिया जग से क्या नाता-रिस्ता ,
कोई न होता कभी सहारा । ”
” जब मुट्ठी में हो , दो कौड़ी- आना दो आना ;
जब आये रूप-यौवन की नजारा ,
सब कहते हैं , मैं तेरा सहारा ।। ”
” हवायें क्या कभी रुकी है ,
वक्त क्या कभी झुकी है । ”
” कर्म तेरा भाग्य-विधाता ,
दो मुट्ठी , दो पांव हरदम है ,
इसका अपने जीवन से नाता ।। ”
*** बे-घर , अनजान रेशम-सी बाल ,
कुसुम-सुकुमारी बाला ;
करती रही मंजिल की तालाश ,
आकाशवाणी-सी अंतर्मन की दर्द गुंज उठी :
” काली-गोरी की रंग भेद हमारी । ”
” कितनी धन-दौलत है तुम्हारी…? ”
” बिन चढ़ावा कैसी सु-वर की चाह तुम्हारी…? ”
” तुम हो केवल उपभोग की वस्तु-नारी । ”
” तुम हो आज हर माँ-बाप के लिए भारी । ”
” असमाजिकता की प्रकोप से ,
बढ़ती जा रही यह अत्याचारी । ”
” आधुनिकता की रोग से ,
बढ गई ये बालात्कारी । ”
” असमानता की बीज पनप ,
भ्रूणहत्या से मिट रही जीवन तुम्हारी । ”
वर्तमान की समीक्षा करती वह ब्यभीचारी ,
आज इतनी त्रासित क्यों है हिन्द की नारी…?
” सदियों की कहानी , मेरे मन जुबानी । ”
” अतीत क्या बताये .. , घट रही है ये हर रोज कहानी ।
दर-दर भटक रही ब्यभीचारी , दुःखों की मारी ।
नजर न आए कोई आज ,
प्रश्न चिन्ह है हम पर
” क्या यही है एक सभ्य समाज की अंदाज । ”
” क्या यही है एक सभ्य समाज की अंदाज । ”
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )
१२ / ० ४ / २०२०