कुंडलिया
कुंडलिया
मुझसे ऊँचा क्यों भला, उसका हो प्रासाद ।
यही सोचकर रात -दिन, सदा बढ़े अवसाद ।
सदा बढ़े अवसाद , समझ ना कुछ भी आता ।
मन में लेकर आग , डाह की जलता जाता ।
इसी आग में जीव , सदा रह -रह कर झुलसे ।
है विनाश की राह, जलन जो पूछो मुझसे ।
सुशील सरना/22-9-24