किसी कबीले ना सरदार के भरोसे हैं,
किसी कबीले ना सरदार के भरोसे हैं।
सर अपने आज तलक दार के भरोसे हैं।।
हमे तो नाज़ हे अब भी उसी की रेहमत पर।
वो और होंगे जो अग्यार के भरोसे हैं।।
उठे तो चीर दें लहरों को अपने बाज़ू से,
अदु समझता है पतवार के भरोसे हैं।।
किसी बहाने उन्हें जश्न का मिले मौका।
मेरे रफ़ीक मेरी हार के भरोसे हैं।।
वो जंग,हमने,कभी सर कटा के जीती थी।
वो लोग आज भी तलवार के भरोसे हैं।।
बडी ही भोली तबीयत के लोग हैं,हम लोग
जो आज तक नई सरकार के भरोसे हैं।।
अमीरे शहर से अशफाक़ तुझको लडना है।
तमाम लोग तो अखबार के भरोसे हैं।।
(अशफ़ाक़ रशीद मंसूरी)