किसको दोष दें ?
आसमान से गिरे खजूर में अटके ,
जा रहे थे रेलगाड़ी सफर में
बैंगलुरू से चैन्नई ,
व्हाइट फील्ड स्टेशन में आ अटके ,
इंजन जो खराब हो गया,
गाड़ी बंद हो खड़ी हो गई ,
गाड़ी चलने के इंतज़ार में
बोरीयत की अति हो गई ,
समय बिताने के लिए
समोसे – कटलेट खाए
काफी भी पी,
पर फिर भी गाड़ी ज्यूँ की त्यूँ खड़ी रही
टस से मस न हुई ,
बैठे बैठे पाँच घंटे बीत गए सब्र का
बांध टूटने लगा ,
यात्रियों की परेशानी सुनवाई करने वाला
कोई ना था,
उड़ती खबर आई कि दूसरा इंजन ,
बैगलुरू से बुलवाया गया हैै ,
तभी गाड़ी चलेगी ,
कोई यह बतलाने वाला ना था,
कि कब गाड़ी चलेगी और
कब तक चेन्नई पहुँचेगी ,
हम सब यात्री भगवान के भरोसे
भजन करते रहे ,
कुछेक रेल्वे प्रबंधन एवं शासन व्यवस्था को
कोसते- भड़ास निकालते रहे ,
अन्ततोगत्वा रात के 8 बजे इंजन के
दर्शन हुए,
यात्रियों ने तब राहत की सांस ली
उल्लसित हुए,
थक हार कर हम रात डेढ़ बजे चैन्नई पहुँच पाए ,
अन्त में दो बजे रात घर पहुँच,
भूखे सोने मजबूर हुए,
इस असंभावित कष्ट के लिए हम किसको दोष दें ?
शासन व्यवस्था , रेल विभाग के कर्मचारियों – अधिकारियों की अकर्मण्यता, या शासन तंत्र की ढुलमुल व्यवस्था या निजीकरण की नीती ?
कुछ समझ मे नही आता ,
हम किस झूठे – वादो , दिलासों एवं
छद्मपूरित ओजपूर्ण भाषणों के दौर जी रहे हैं? जिसमे चंद राजनीतिज्ञ अपने
राजनैतिक स्वार्थे के लिए,
अपनी मनमर्जी कर आम आदमी का
जीवन दूभर कर रहे हैं।
टिप्पणी : उपरोक्त कविता सत्यघटना पर आधारित है। जो दिनांक 22 फरवरी बैगलुरु से चैन्नई गाड़ी क्रमांक 22626 से यात्रा के दौरान घटित हुई।