किताबी जीवन
ये जीवन किताबी जिये जा रहे हैं
वरक़ रोज़ सादे जुड़े जा रहे हैं
तमन्ना थी जो आ ख़बर ख़ैर लेते
मेरा हाल बिन वो सुने जा रहे हैं
ले शिकवा ग़िला लब पे ऐ ज़िन्दगी सुन
है कम क्या जो तुझको जिये जा रहे हैं
गुज़र क्या रही होगी उस आईने पर
बेपरवाह हो वो सजे जा रहे हैं
मुझे पढ़ ले शायद कभी अपने ज़रिये
यही सोच तुझको लिखे जा रहे हैं
सुशान्त वर्मा