किंकर्तव्यविमूढ़
राजनीति जब से धर्म से जुड़ गई हैं ,
तब से धर्मांधता राष्ट्रवाद का पर्याय बन गया है,
जनता को समस्याओं से भटका,
अतीत को उखाड़ भावनाओं को भड़का,
राजनैतिक लाभ उठाने का मंतव्य बन गया है,
धर्म के ठेकेदार अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं ,
एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर अस्थिरता पैदा कर रहे है,
राजनैतिक चाटुकार सरकार की उपलब्धियां गिना रहे हैं,
अवसरवादी राम को रहीम और कृष्ण को करीम से लड़वाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ,
चंद बिके हुए प्रसारण तंत्र अपना -अपना राग अलाप रहे है ,
समाज के बुद्धिजीवी वर्ग मूकदर्शक बने यह सब तमाशा देख रहे हैं ,
ये सब भूल गए हैं कि धर्म के नाम पर देश नहीं चलता है ,
देश को चलाने के लिए समर्पण ,सांप्रदायिक सौहार्द्र,एवं सहअस्तित्व भावना की आवश्यकता होती है ,
आत्मबल, लगन, सत्यनिष्ठा, कर्मनिष्ठा, एवं राष्ट्र के प्रति बलिदान भावना की आवश्यकता होती है,
कोरे चुनावी वायदों, भाषणों ,वार्ताओं से जनता को दिग्भ्रमित कर कुछ हासिल नहीं होता है,
देश विकास की ओर अग्रसर न होकर विखंडन एवं अधोगति के कगार पर जा खड़ा होता है,