कहाँ जा रही हैं औरतें
कहाँ जा रही है औरतें
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आज फिर बैठेगीं कस्बे की औरतें
आकर झुण्ड में अपने
शाम को खाने के बाद
सभी होती इकट्ठी
फिर कुछ देर बाद
गुनगुनाएगीं हंसी
और कुछ
सीसकीयाँ भी
तैर जाएंगी।
बातें कुछ परोसन की या
फिर अपने घर वालों की
सभी के दर्द
एक एक कर
परोसे जाएंगे सामने
कभी मिर्ची
लगेगी किसी को
किसी को
चटपटाती चाट
सा रस मिलेगा
बड़ी खुबी से
ओढ़कर पेबंद भरी
चादर
धीरे से दुसरों को
नंगा किया जाएगा ।
वहीं कुछ दूर बड़ी इमारत में
होकर इकट्ठी औरतें
झुमती डाल के गैरों के गले
में हाथ
अपनी आधुनिकता का
ओढे लिबास
बड़ी ही बेपरवा हो कर
इस दुनियां से
बोलती आदर्श भरी बातें
खुशबू से नहा कर
अपनी गंध को छुपाए
वो आज फिर कर रही हैं बातें।
चली जाएगी दोनों तरह की औरतें
समेटे कुछ खुशियों को भर
कोई फिर पसर जाएगी
चादरों के संग बिस्तरों पर
और दुसरी पाने को अतृप्त अभिलाषा
चुकाएगी अपनी ही काया।
दोनों ही हालातो में औरतें
ढ़ुढती है और जानने की कर रही कोशिश
है आखिर किस तरफ जा रही है वो
आज भी पीस रही है वो
या कि खुद को ही छल रही है वो।
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शुभ्रा झा