कवि दुष्यंत कुमार, समीक्षा आज के परिप्रेक्ष्य में।
शाहकार श्री दुष्यंत कुमार जी समाज के विद्रोही कवियों के प्रतिनिधि हैं। उनकी रचना इसका प्रमाण है ।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।
समाज के सरोकार से पूर्ण तरह वाकिफ कवि समाज की समस्याओं को भरपूर रूप से उभारते हैं ।
कहां तो तय था चिरागा हर एक घर के लिये। कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिये। समाज के कर्णधारों द्वारा किए गए कार्यों की विसंगति का चित्रण करते हुए कहते हैं।
यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है ।
चलो यहां से चले और उम्र भर के लिये।
अपने मुक्तक सूर्य का स्वागत में कहते हैं ।
संभल संभल के बहुत पाँव धर रहा हूँ।
मैं पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूं मैं।
कदम कदम पे मुझे टोकता है दिल ऐसे।
गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूं मैं ।
रात के स्याह अंधकार में शहरों में जब अपराध की काली छाया वातावरण को घेर लेती है तब वो कहना चाहते हैं ।
रोज जब रात को बारह बजे का ग़ज़र होता है ।
यातनाओं के अंधेरे में सफर होता है ।
दुष्यंत कुमार जी अपने समकालीन कवियों में अत्यंत प्रसिद्ध कवि रहे हैं। उनकी कृतियां समाज का मार्गदर्शन करती रही हैं। आज भी वे युवाओं के प्रतिनिधि कवि के रुप में प्रतिष्ठित हैं,और रहेंगे।