कविता
कर्जदारी कैसी कैसी…
मैं कर्जदार था
चार दाने भी मयस्सर नहीं थे मुफलिसी में
सन्नाटे घर में बसते थे..अब
रिश्ते नाते सब लिपट के हँसते है,रोते हैं..
पता नहीं कैसे,त्यौहार हो गया हूँ।
हर दिन बडा होने की कोशिश में,
बाजार हो गया हूँ,
चली आई है बद हवा…
दबे पाँव, चुपके चुपके,
नामवरी के साथ-साथ,
देखो,
खबर ए अखबार हो गया हूँ।
मैं रोज ,तरह तरह से देखता हूँ आइने को..
क्या मैं कोई अवतार हो गया हूँ ?
क्यों मंडरा रहे हैं..
हजारों कीट पतंगे..
इस बियाबान में,
क्या मैं अचानक गुलज़ार हो गया हूँ।
मैं तो बाबा के निशानों पर चलता रहा..
देखो कितना असरदार हो गया हूँ,
मेरी खिदमत,दौलत ने बनाए.. कितने
रिश्ते औऱ मुरीद भी..
मैं भरा पूरा परिवार हो गया हूँ।
लेकिन ,दे गए नसीहते, मेरे अपने,
करके दगा,
कैसे लोटाउँ उनके फरेब,मुझे आता ही नहीं..
अब अपनो का कर्जदार हो गया हूँ।
मैं तो छपाने चला था, नेकनामियों का अखबार..
पर कुछ नहीं,
कर्जो का इश्ति हार हो गया हूँ।
पंकज शर्मा