कविता
बदलाव…(नव वर्ष का पहला दिन)
क्या हुआ.. दिन ही बदला है ना
कुछ ‘काश’ जो चले आ रहे है
मेरे साथ,
क्या वो आज बदल जायेंगे..
मैं जानता हूँ,
कुछ भी नया नहीं हुआ है..
न मैं बदला, न मेरे दोस्त
ऐसे में क्या मेरे दुश्मन बदल जायेंगे..
मैं कल ही तो लोटा हूँ
तेरे शहर से..
तेरे साये अभी भी वहीं हैं,
जहाँ छोड़े थे मैंने..
तु नहीं तो क्या,
जहाँ लंबी हुई परछाइयाँ
क्या वो चौराहे बदल जायेंगे..
कुछ नहीं बदलता,
मैं भी बरसो से बुत हूँ…
क्या मेरी आँखों से तेरे ख्वाब बदल जायेंगे।
कैसे कैसे बदलाव न
किए मेरे आका ने,
पर…क्या कुर्सी के पुतले
खुद को जगा पायेंगे
सब रंगे सियार हैं..
औजार बदलने से क्या मजदूरों के
हाथों के छाले बदल जायेंगे।
कुछ नहीं बदलता… तारीख के बदलने से
ये तो चक्र है प्रकृति का…
इसको चलने दो..
बदलाव होगा..जरूर होगा.. जब
आँखों में हयात चमकेगी..दीवारों के कान चुप होंगे..
जुबां की कालिख बदलेगी,बेखबरी बदलेगी
कलियाँ खिलने से पहले नहीं गिरेगी..
फूल मसले नहीं जायेंगे.. चेहरे झुलसाये नहीं जायेंगे
चुनर जलाई नहीं जायेगी..मलाला धमकाई नहीं जायेगी
जब माँ की आँख के आँसू खुशी के होंगे
बुढापे को धकेलते बाबा.. जब दुसरे घर में नहीं होंगे…
जब मत का मतलब मद न होकर सही चुनाव होगा..
योग्य को पद मिलेगा, ना मोल भाव होगा…
जब जनता राह दिखायेगी,और आका भोज सजायेंगे
तब तारीखे कैसी भी हो….
हम नव वर्ष मनायेंगे…
पंकज शर्मा
झालावाड़ (राज.)