कविता
शब्द-लेखनी पग-पग चलकर
धीरे-धीरे निखर संवर कर
चिंतन मन से तल पर उतरो
जन मानस के भीतर बिखरो
देखें वह जो धरे बोझ सर
लगा रहा झाड़ू जो पथ पर
जाल फेंकता जो जल धारा
वह भूंखा भिक्षुक बेचारा
देख तुम्हें कुछ विचलित होंगे
तुम्हें देख क्या वे ठहरेंगे
उनके मन की व्यग्र-व्यथा को
क्या परिवर्तित कर पाओगी
अंधियारे जीवन में उनके
क्या उजियारा भर पाओगी
या ले भीतर शब्द चमत्कृत
फिर करके ऋंगार निराला
लूटोगी तुम बस शाबाशी
बन कर के” सचेत “की माला
रूप कामिनी का धर कविता
मानवता का ह्रास करेगी
करता तुमसे नम्र-निवेदन
कर जोड़े कविता की देवी
हास मत करो तुम जीवन का
बन जाओ दु:ख की बलिवेदी