कविता
मैं श्रमिक….
मैं श्रमिक हूँ पास मेरे बस्ती है घर नहीं है
लोगों को घर मिल गये मुझको खबर नहीं है।
सुबह से शाम तक बहाता हूँ मैं बस पसीना
परिवार का जो हो गुज़ारा कमाई मगर नहीं है।
बच्चों की पढ़ाई का गर मैं सोचूँ भी तो कैसे
गुरबत पे मेरी तो किसी की भी नज़र नहीं है।
किसके दर पे जाके सुनाऊँ मैं व्यथा अपनी
इन आहों-आँसुओं का किसी पे असर नहीं है।
खु़दा भी मेरी मदद करे तो बताओ कैसे करे
आज इन्सानों को उसका भी तो डर नहीं है।
परिवार सारा काम करे आधे पेट सोये भूखा
बता सकूँ दर्द जिसको एसा कोई मगर नहीं है।
बिमारी में भी मुझको करनी पड़ती है मजदूरी
मुसीबत में जो पेट पालूंँ पास मेरे ज़र नही है।
खुदा ने सबको साधन दिया है जीने का यहां
सबके पास सब कुछ मेरे पास क्यूँकर नहीं है।
क्या करुँ बताए कोई कैसे पालूँ परिवार अपना
गरीबी से पीछा छूटे एसी तो कोई डगर नहीं है।
मिलता है किस्मत का लिखा सुना है लोगों से
रखूँ भरोसा खु़दा पे उम्मीद कोई बेहतर नहीं है।
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र