कविता
क्यूँ री सखि भाग-7
क्या है तेरा हाल सखि री
दुखियों जैसी चाल सखि री
पल पल मेरा दम घुटता है
रखे कौन ख्याल सखि री
क्या जानूँ औ’ क्या समझूँ मैं
बजते क्यूँ हैं गाल सखि री
बंद आँखों से रस्ता ढूंडूंँ
वक्त का देख कमाल सखि री
ढोल नगाड़े खूब हैं बजते
देख ज़रा धमाल सखि री
अपनी अपनी सारे करते
क्या धनवान, कंगाल सखि री
कदम कदम पर ठोकर खाऊँ
बहकी बहकी चाल सखि री
झूठा से मोहे लोग लगें
सच्चे सुच्चे बाल सखि री
कानों में मेरे ढोलक बाजे
पहचानूँ मैं न ताल सखि री
विरह मेरी सौतन हो गयी
दिन बीतें या साल सखि री
घर बार सब छोड़ दिया है
हो गयी मैं बेहाल सखि री
एक सुने न मेरी दुष्मन
बेदर्दी ज्यूँ काल सखि री
छलिया मेरी बात न माने
गले न मेरी दाल सखि री
मेरा उसका एक ही इरादा
रहूँ बस उसकी ढाल सखि री
कहूँ मैं उसको गले लगा ले
हंस कर देता टाल सखि री
दिल जले और नींद न आये
कैसा उसका जाल सखि री
उसकी खातिर रोज बनाऊँ
पकवानों के थाल सखि री
उसका मेरा एक बजूद.है
पेड़ संग ज्यूँ छाल सखि री
अपना रिश्ता सच्चा रिशता
बहम न दिल में पाल सखि री
याद करेगी मिल जायेगा
किस्मत पर न डाल सखि री
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र