कविता
क्यूँ री सखि भाग 2
कर्मों की है मार सखि री
डूव गया घर वार सखि री
गहरी गहरी साँस चली है
धीमी सी रफतार सखि री
और भी मुझको जीना है
मानूं कैसे हार सखि री
सब कुछ मेरा उजड़ गया है
काहे का घर द्वार सखि री
वो भी मेरा हुआ न अपना
कैसा निकला यार सखि री
मेरी कश्ती वहीं पे डूबी
जहां नहीं मझधार सखि री
कोई अपना नहीं यहां पर
जीवन का यह सार सखि री
मांगे से तो प्यार मिले ना
वक्त है तीखी धार सखी री
मिलने आया कभी न जालिम
करती रही श्रृंगार सखि री
बदल सकी न उसकी खातिर
मुझको है धिक्कार सखि री
रास न आई उसको चाहत
मैं बिकी सरे बाज़ार सखि री
हर किसी ने मुझको घूरा
हो गयी मैं इश्तिहार सखि री
टूट गयी हूँ थक गयी हूँ
कहां करुँ पुकार सखि री
उसका भाणा मीठा लागे
होगा बेड़ा पार सखि री
उसके दर पे शीश नवाऊँ
वो मेरा भरतार सखि री
दर दर भटकुं ठोकर खाऊँ
भली करे करतार सखि री
प्यार की खातिर प्यार बांटू
होकर में लाचार सखि री
काहे उसकी हुई दिवानी
मिले नहीं दीदार सखि री
सूनी गलियाँ सूना दिल है
सूना सा घर वार सखि री
किसके आगे रोऊँ दुखड़ा
जीवन है बेज़ार सखि री
जिसे चाहुँ उसे मनाऊँ
उसे नहीं इन्कार सखि री
बात सुने न माने मेरी
करे नहीं इकरार सखि री
झूठी चाहत झूठे लोग
झूठा यह संसार सखि री
निराश कहूँ मैं किसको अपना
कोई न अपना यार सखि री
सुरेश भारद्धाज निराश
धर्मशाला हिप्र