कविता- “हम न तो कभी हमसफ़र थे”
कविता- “हम न तो कभी हमसफ़र थे”
डॉ तबस्सुम जहां
हम ना तो कभी
हमसफ़र थे
और ना बन सकें
कभी मंजिल
फिर भी बीते हुए लम्हों में
इक अनजाना- सा
प्यारा- सा रिश्ता
बन पड़ा था
थी जिसमे मिलन की ख़ुशी
न था दूरियों का रंज कहीं
न ही किसी उम्मीद के साए
मेरी साँसों के जानिब खड़े थे
फिर भी यादों में बसे हुए
कुछ पीले सूखे-से पत्ते
अभी भी मेरे दिल की
राहों में पड़े हैं
हर पत्ता और उसकी चरमराहट
हमारी दोस्ती की जाने
कितनी ही मीठी खटपटों की
याद दिलातें हैं
हर सर्द हवा का झोंका
फ़िज़ा में महकती
इक सौंधी-सी ख़ुशबू
शाम में चहकते
परिंदों की खनक
दरख़्तों के झुरमुटों से
छनती सुर्ख रंगत
सहर शब आपके होने का
मुझे अहसास कराते हैं
फिर भी मैं जानती हूँ
सच्चाई सिर्फ इतनी-सी है
हम ना तो कभी हमसफ़र थे
और ना बन सकें कभी मंज़िल
फिर भी बीते हुए लम्हों में
इक अंजाना-सा
प्यारा-सा रिश्ता बन पड़ा था…
वो हर आहट थी
जानी पहचानी तेरी
हरेक शै में दिखती सूरत तेरी
मोहब्बत थी तेरी या मेरा वहम
तेरे छूते ही मैं क्यों जाती सहम
रही उलझनों में था वो दौरें समां
ख़ुशी से झूमने लगी वीरां बस्तियाँ
पर मैं जानती हूँ
बात सिर्फ इतनी-सी है
हम न तो कभी हमसफ़र थे
न बन सके कभी मंज़िल
फिर भी बीते हुए लम्हों में
इक अंजाना -सा
प्यारा -सा रिश्ता बन पड़ा था !
चली बारिशों की जब ठण्डी सबा
दिल में ज़ख्म करती आबो हवा
तेरी खुशबु से घर
मेरा जाता महक
ख्वाहिशों के दरख्त
पर हो जाती चहक
तेरे जाने से लगता बदरंग सब
काटे कटती ना थी
मुझसे फिर कोई शब
पर मै जानती हूँ
बात सिर्फ इतनी – सी है
हम न तो कभी हमसफ़र थे
और न ही बन सकें कभी मंज़िल
फिर भी बीते हुए लम्हों मे
एक अंजाना- सा
प्यारा- सा रिश्ता बन पड़ा था