कविता :- पेड़ो के झुरमुट में
?पेड़ो के झुरमुट में ?
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विस्फारित नयनो से
ढूढ़ता हूं मैं तुझको
सघन वृक्षों की छांव में
शायद
बैठी हो छुपकर
बचपन में हम
खेला करते थे
छुपम छुपाई का खेल
तुम ढूंढती थी मुझको
और
मैं छुप जाता था
गायों के लिए रखी
उस घास के पीछे
ओढ़ लेता था एक बोरा
जब तुम पास आती तो
अचानक मैं बोरे सहित
तुम्हारे समक्ष
खड़ा हो जाता
और तुम
घबराकर रोने लगती
मैं जब बहुत
मनाता था तुमको
तुम मान
खिलखिलाकर
हंस देती थी
शायद
आज उसी बात का
बदला लेने की है ठानी
या फिर मौसम का
लुत्फ़ उठाने को
पेड़ो के झुरमुट में
ले आई हो
स्वतः आती हो बाहर
या मैं तुम्हें बुलाने को
सुंदर गान सुनाऊं
मौसम बडा सुहाना है
छायी है सूरज की लाली
देखो तरु टहनियों पर
सुंदरतम् रश्मि छायी
अब तो दिखला दो
मुखड़ा अपना
क्योंकि
रंगमंच पे आने की
अब सूरज ने है ठानी
पेड़ो के झुरमुट में
विस्फारित नयनों से
ढूंढ़ता हूं मैं तुझको ।।
?मधुप बैरागी