कविता की धरती
कविता की धरती
अलग तरह की होती है
कविता
कुकुरमुत्ते की तरह नहीं उगती,
उग ही नहीं सकती
कविता
महकती है
काँटों में घिरा
गुलाब बनकर
कविता
उगती ही है
पथरीली-रपटीली
पहाड़ी ढलानों पर
नर्गिस की क्यारियों में
फैलती है
खुशबू बनकर
कविता की धरती
अलग तरह की होती है
कविता
पता नहीं
कब जगती है-कब सोती है
कविता तो
सेठ की तिजोरी नहीं
पत्थर तोड़ने वाले
हाथ बोती है
भयंकर नदियों पर
बाँध बनाती है
ऊँचे-ऊँचे गगन-चुम्बी
भवन बनाती है
लोहा कूटती है
कोयला और प्लास्टिक
कूड़ेदानों में से बीनती है
कविता
आषाढ़ की धूप में
बरखा की
पहली फुहार सी होती है
कविता मन पर जमे
जाने कितने पहाड़
ढोती है
कविता की धरती
अलग तरह की होती है