कविता क़िरदार है
कभी हल्की कभी दमदार होती है,
कभी नकद है तो,कभी उधार होती है।
शब्दों का झुंड है शानदार होती है,
ये कविता भी एक किरदार होती है।
कभी सुगबुगाती है,
कभी बुदबुदाती है।
भीनी मुस्कान बन,
कभी गुदगुदाती है।
कविता का एक कर्म है,
कविता का भी धर्म है।
सबको समा लेती,
यही इसका मर्म है।
न कोई जमात इसकी,
न कोई जात इसकी।
वसुधैव कुटुम्बकम,
बस इतनी बात इसकी।
कविता शाम है
कविता भोर है,
कविता रफी है
कविता किशोर है।
इब्राहिम पठान है,
कन्हैया पर कुर्बान है।
जाने कितने छंद लिखकर,
बन जाता रसखान है।
कभी सामने होती है,
तो कभी लुकाती है।
कभी बात कह देती,
तो कभी छुपाती है।
खिलखिला के हंसती तो कभी रोती है।
ये कविता भी एक किरदार होती है।
सतीश सृजन