कविता एक उत्पत्ति
जरा गौर से देखो,
अश्कों से कविता निकलेगी।
दिल में उतर कर देखो,
कंठ से कविता निकलेगी।
मत नकार उस कीचड़ को,
पंकज सी कविता निकलेगी।
जरा फोड़ कर देख,
उन पाषाणों को,
निर्मल जलधार सी,
कविता निकलेगी।
यूं मुंह ना फेर रेतीले टीलों से,
खेजड़ी की कॉपल छांव से,
कविता निकलेगी।
काले तन को,
ना देखो काले मन से,
कोयल की गुनगुनाहट सी,
मृदुल सी कविता निकलेगी।
मत डरो उन महलों की,
सन्नाटा आवाज से,
इतिहास जगाती प्राचीरो से,
सुंदर सी कविता निकलेगी।
सिंधु की गहराइयों में,
स्वाति की बौछारो से,
धवल मोती की आस में,
श्वेत सी कविता निकलेगी।
सूक्ष्म नासमझ तू,
उन ऊंचाइयों पर,
बुलंदियों के हिम से ,
शिखर सी कविता निकलेगी।
क्यों होता है लहरी,
मायूस इन सितमो से,
लेखनी को तेज कर,
धार से कविता निकलेगी।
(विश्व कविता दिवस पर समर्पित–)
(रचनाकार- डॉ शिव लहरी)