***”कर्म बंधन से मुक्तिबोध”**
***” कर्म बंधन से मुक्तिबोध “***
भागवत गीता अनंत ज्ञान का वृहद भंडार है इसे समझना बहुत ही कठिन है लेकिन भागवत गीता में कृष्ण अर्जुन संवादों को सरल भाषा में समझा जा सकता है महाभारत युद्ध काल में कृष्ण जी अर्जुन के सारथी बनकर *कर्म बंधन से मुक्तिबोध कराया गया है उन्ही भागवत गीता का उपदेश के माध्यम से कुछ श्लोक उल्लेख करती हूँ।
भागवत गीता का प्रमुख श्लोक –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुभुरामर ते सङ्गोस्त्वकर्मणि “।।
यह हमारी आत्मदर्शन के लिए प्रमुख श्लोक है जो हमारी आत्मा का दर्शन कराता है विज्ञान कार्यप्रणाली की जानकारी प्रदान करता है कहा गया है -प्रथम चरण- ” कर्म करो फल की चिंता मत करो दूसरा चरण -“तुम्हारे कार्यों का फल आनंद या खुशी के लिए नहीं है “तीसरा चरण “कर्ता के भाव का अभिमान घमंड छोड़ दो कार्य करते समय कर्त्ता के अभिमान अहंकार को छोड़ दो निष्क्रियता से ना जूडो …..! ! अर्थात निःस्वार्थ कर्म करो हमारा अधिकार सिर्फ कर्म करना ही है लेकिन उसका फल परिणाम स्वरूप प्रयासों पर आधारित निहित है जीवन कर्म करने में ही अधिकार है उसके फल में ही नहीं इसलिए तू कर्मों का फलहेतु मत हो तथा तेरा कर्म ना करने में भी आसक्ति न हो।
कर्म करने का अधिकार हमारा है लेकिन कर्मफल प्रयासों पर आधारित है फल के निर्धारण में बहुत से तत्व भूमिका अदा करते हैं जैसे हमारा लक्ष्य और कठिन परिश्रम , ईश्वर की इच्छा, सामूहिक सहयोग, समाज में जुड़े हुए लोगों का सामूहिक प्रयास ,कर्मस्थान एवं परिस्थितियां ये सभी कर्मफलहेतु के निर्धारक है यदि हम फल याने परिणाम जानने के लिए उत्सुक होंगे तो हमारे शरीर में उत्तेजना का अनुभव होगा अपेक्षा अनुसार कर्मफल नही मिलेगा तो हम उत्तेजित हो जायेंगे निराश होकर गलत दिशाओं में चले जायेंगे।
ये सभी चीजें परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है कभी कभी सैद्धान्तिक भी हो जाती है जहाँ उलटफेर विकल्प दिया जाता है वहाँ ये लागू नही हो पाता है।
श्री कृष्ण जी महाभारत युद्ध के मैदान में कहते हैं – “कर्म कर फल की चिंता मत कर परिणामस्वरूप मुझ पर ही सब छोड़ दे और कर्म के ऊपर ही अपना ध्यान लगावो ……
उपरोक्त तथ्य की सच्चाई यह है कि जब हम परिणाम के प्रति चिंतित नहीं होते हैं तो हम अपने प्रयासों पर ध्यान केन्द्रित करने में समर्थ होते हैं इसके कारण पूर्व कर्म की अपेक्षा परिणाम अच्छा मिलेगा।
*”न हि देहभृता शक्यं त्यांक्तु कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागित्यभिधीयते।।
अर्थात शरीर धारी किसी भी मनुष्य के द्वारा संपूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना संभव नही है इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है वही त्यागी है यह कहा जाता है।
कृष्ण जी ने स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संपूर्ण कर्मों का त्याग करना संभव नहीं है कोई व्यक्ति किसी कर्म के नही रह सकता है और हरेक व्यक्ति को किसी न किसी प्रकरण में हर तरह के कर्म करना आवश्यक होता है तथापि श्री कृष्ण जी ने बताया है कि यदि फल के लगाव को या परिणाम को छोड़ दिया जाय तो वही सच्चा त्यागी होगा।
“रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुरबधौ हिंसात्मको अशुचि: !
हर्षशोकांन्वितः कर्ता राजसः परकीर्तितः।।
अर्थात जो कर्त्ता आसक्ति से युक्त ,कर्मों के फल चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला,अशुद्धचारी और हर्ष – शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है।
कर्त्ता के प्रकृति के अनुसार कर्म की व्याख्या विवरणात्मक दिया जा सकता है इन्हें तीन भागों में बांटा जा सकता है।
1 राजसिक कर्म (राजसी)
2 सात्विक कर्म
3 तामसिक कर्म (तमस )
“राजसिक कर्म” – राजसिक गुण वाले सक्रिय व गतिशील कार्यशैली वाले होते हैं अगर उनके पास कोई काम ना हो तो बेचैन महसूस करते हैं साथ में उन्हें मनोरंजन के साधनों में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई देती है ऐसे लोग एक ही जगह पर चुपचाप बैठे रहना पसंद नही करते हैं इन गुणों वाले व्यक्तियों में राजसिक गुणों का प्रभाव रहता है उनमें तरह तरह की इच्छायें जागृत होती है और उन सपनों को पूरा करने के लिए भरपूर आनंद ,जोश व भावनायें रहती है जो ऐसे लोग अक्सर व्यवसाय के क्षेत्रों में जाना पसंद करते हैं।
राजसी ऐशो आराम की चीजों सांसारिक इच्छाओं में लिप्त रत रहते हैं वह यह नही जानते हैं कि यहाँ हर चीज अस्थाई है एक दिन सभी चीजें छोड़कर चले जाना पड़ेगा ….! ! !
जो मानसिक इच्छा शक्ति और इन्द्रियों पर निर्भर रहता है वे अपनी सोच पवित्रता दयालुता नही रखते हैं ऐसा व्यक्ति यह सोचता है कि जो भी सांसारिक सुख चाहते हैं वह इस संसार में उपलब्ध है और इसलिए उन्हें किसी भी महंगी वस्तुओं से संतुष्टि नही मिलती लालची स्वभाव के होते हैं जब यह देखते हैं कि अन्य बाकी लोग ज्यादा कामयाबी हासिल कर जीवन में सफल हो रहे हैं तो वह अंदर से दुःखी हो जाते हैं और उन इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अपनी मानसिकता से नीचे गिरते जाते हैं और जब उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती है तो खुश हो जाते हैं लेकिन इच्छा पूर्ण ना होने पर फिर से दुःखी हो जाते हैं इस तरह से उनकी जिंदगी सुख दुःख के दायरे में कैद हो जाती है।
“सात्विक कर्म- जो आधात्मिक की इच्छा से प्रेरित होते हैं और आधात्मिक उन्नति की ओर प्रेरित रहते हैं इस तरह के व्यक्ति हल्का व लघु प्रकाश देने वाला है बुद्धिगत सत्य रूप में अपना प्रतिबिंब देखकर अपने आपको ही कर्त्ता मानने लगता है सत्यगत मलीनता आदि का अपने में आरोप लगाने लगता है सात्विक गुणों वाले लोगों में आधात्मिक गुणों की प्रधानता होती है वह प्रभावशील होता है तब व्यक्ति में अच्छाई और देखभाल करने की सहज रूप से इच्छा शक्ति होती है उन व्यक्तियों का मन इंद्रियों पर नियंत्रित रखता है तो वह सात्विक गुणों वाला होता है। ऐसे लोग न सिर्फ बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं बल्कि अपने ज्ञान को सभी लोगों में बांटना भी पसंद करते हैं ऐसे व्यक्ति अपने कामों को गम्भीरता से लेते हैं और कोई बहानेबाजी नही करते हैं हर स्थिति में डटे हुए सहज रूप से शांत भी रहते हैं और सोच समझकर फैसला लेते हैं।
उदाहरण स्वरूप – महात्मा गांधी जी, संत कबीर, स्वामी विवेकानंद जी आदि।
“तामसिक कर्म- तमस प्रधान होने पर व्यक्ति को सत्य असत्य का ज्ञान के बारें में पता नही चलता है यानि अंधकारमय जीवन रहता है कौन सी बातें उसके लिए अच्छी है या बुरी है इसका मतलब यथार्थता का पता ही नहीं चलता और इन्हीं स्वभावों के कारण जिज्ञासा भी नही रहती है कि कौन सी चीजों से क्या फर्क पड़ता है।
तमस अर्थात अंधकार ,मौत, विनाश,अज्ञानता
सुस्ती आलसीपन ये सभी चीजें प्रतिरोधक शक्ति को छीन लेती है। कोई भी कर्म के अनुसार अवगुण उतपन्न होता है नकारात्मकता को दर्शाता है लक्ष्यहीन जीवन , तार्किक सोच योजनाओं में कमी बहानेबाजी आगे बढ़ने के लिए ……इन कर्मों को करने के लिए अनदेखी नहीं करना चाहिए ।
तीनों गुणों में अपनी अलग अलग विशेषताएँ होती है यह माना जाता है कि तमस सबसे अधिक भारी एवं सुस्त होता है उदाहरण के लिए – (पृथ्वी का एक पत्थर या गांठ )यह राजस ऊर्जा और सत्व की चमक से रहित होता है।
*न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्त्तते ।।
परमेश्वर मनुष्य को न तो कर्त्तापन की ,न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं ; किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है।
ईश्वर सार्वभौमिक रूप से है जो पूरे विश्व को नियंत्रित करता है और अकर्त्ता बना हुआ रहता है वह हमारे क्रियाओं का न तो निर्देशक होता है और ना ही आदेश देता है जिनका मन समभाव में स्थित रहता है जो संसार को जीत लिया है वही सच्चिदानंद घन परमात्मा है।
सभी धर्म ग्रन्थों में “वो आत्मा मैं सभी तुम्हारे समस्त कार्यों का निर्देशक हूँ इसलिए आप यह समझने की आवश्यकता नही है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है मैं तुम्हें उस कार्य में लगाऊंगा जो मैं चाहता हूँ जो मेरी इच्छा होगी उसी कार्य मे तुम्हें लगाऊंगा ”
इसी तरीके से ईश्वर परमात्मा “कर्त्ता के भाव जुड़ाव का जिम्मेदार मैं नही हूँ ये काम किया उसका जिम्मेदार भी नहीं है ”
(यदि उसने यह भाव आ जाये व्यक्त किया गया शामिल होता तो दोष दे सकता है जो नहीं कर पाते हैं )
“मैनें किया है उसके जिम्मेदार नहीं है ईश्वर ”
उपरोक्त परिणामस्वरूप श्लोकों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है आत्मा का सच्चा उद्देश्य अपना आत्मज्ञान अपनी पहचान है जो भी आत्मज्ञान में अंतःकरण में पहचानी जाती है जो जीवात्मा जन्म लेकर आती है कर्म बंधन से बंध जाती है कर्म करते हुए अपने कर्म फल को सांसारिक सुखों को भोगते हुए सभी कार्यों से पवित्र होकर कर्मबंधन से मुक्त हो जाती है।
शशिकला व्यास
***राधैय राधैय जय श्री कृष्णा ***