करता कौन जाने
सोचूं में क्या, करता कौन जाने
पग-पग बीति दिन-रात फिर कैसे दिन
हुँकार नहीं शंखनाद नहीं ये है कौन धार
विश्व जगे झर-झर जाते खिल फूल यहाँ
मैं कौन हूँ ये सृजन की कहो चाह
अरे चले कहां, चलों वो दिव्य राह
आभा अनुराग नहीं बस है तमस मैं कहूं
दिखे नहीं तो फिर चले घिर-घिर किधर ?
है कर-कर सब गतिमान पंथ या अन्य
पर चलें और वक्त में फहराएं विजय दिवस
लय-लक्ष-लत्र-लश-लौ-लड़ है तपन में
उज्ज्वल नहीं पर हो प्रज्ञादीप पटल भव
एक लम्हें है इति के वो भी लयबद्ध क्रम में
हूं नहीं मैं इसके क्रमचक्र में कबसे दिवस से
दे रहे थे कौन लकड़ी वात स्यायी नहीं क्रम है
है है पर कहें कौन ये किन्तु-परन्तु फिर चले कौन
सौ-सौ गज नहीं ये है प्रणाधार शताब्दी भी नहीं
प्रहण ही है यौवन में नहीं तो शैशव में ये कहो कौन
प्रवृत्ति है प्रकृति के ऊं लिए चलें कौन-कौन किधर
फिर भी एक काल वक्त उनका बने अर्क या शशि