कमजोरों का आत्मसमर्पण !
हर वस्तुस्थितियाँ अनेक पक्ष लिए होते हैं। ऐसे परिप्रेक्ष्य में विशेष ज्ञान न होकर ‘विज्ञान’ विपरीत ज्ञान भी हो गया है । डायनामाइट का गलत इस्तेमाल और युवाओं में कुतर्क व्यवहार से तो यही लगता है। शांतिदूत कबूतर शाकाहारी हैं, किन्तु मैंने उसे देखा है, तिलचट्टे को मारते हुए ! यह सब जान बचाने के लिए चाहिए ही, आत्म-समर्पण कमजोर ही हमेशा क्यों करें ?
पर गीतासार तो सुस्पष्ट है– जो हुआ, अच्छा हुआ । जो हो रहा है, वह भी अच्छा ही हो रहा है । जो होगा, वह अच्छा ही होगा । तुम्हारा क्या गया, जो तुम रुओ रहे हो ! तुम धरती पर क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया । तुमने क्या पैदा किया, जो नष्ट हो गया । तुमने जो लिया, यहीं से लिया । जो दिया, यहीं को दिया । जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का हो जाएगा, क्योंकि परिवर्त्तन ही संसार का नियम है और संघर्ष ही जीवन है ।
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ कहना अपरिहार्य नहीं है, सच्चाई है । वैज्ञानिक न्यूटन के तीसरा गति नियम अर्थात प्रत्येक क्रिया के विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है । ‘साहित्य’ विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उत्तम माध्यम है, किन्तु यह सत्य और तथ्यों पर आधारित हो।