अपराह्न का अंशुमान
कभी था प्रभात का बाल सूर्य,
लालिमा रश्मि कोमल सुंदर।
धीरे धीरे चढ़ता ही गया,
प्रकाश उदित अतिशय अंदर।
यौवन पल में परिपूरित था
निदाघ में मेरे वेग प्रबल।
मध्याह्न ज्येष्ठ में था विराट,
मेरी अर्चि तपाती नभ जल थल।
अब अपराह्न का अंशुमान,
ज्योत्स्ना नहीं प्रचंड प्रखर।
सन्ध्या को सब किरणें सिमटें,
पसरी थी जो चहुँ ओर बिखर।
पुरुषार्थ में जीवन बीता पर,
क्या मंजिल अपनी पाऊंगा।
या सौम्य लालिमा रश्मि लिये।
गोधूली में छिप जाँऊगा।