कभी गर वक़्त के घेरे में किस्मत हो गयी तो फिर
कभी गर वक़्त के घेरे में किस्मत हो गयी तो फिर
बुलन्दी की ज़वालों से ही हुज्जत हो गयी तो फिर
अभी आँखों के रस्ते से सनम दिल में समाते हो
कहीं तुमको भी गर हमसे मुहब्बत हो गयी तो फिर
अभी हम मुंतज़िर बैठे चले आओ भी मिलने को
तुम्हारे आने से पहले क़यामत हो गयी तो फिर
अभी गुस्से में लगते हो अभी तो जा रहे हैं हम
करोगे बाद में तुम क्या नदामत हो गयी तो फिर
अभी तेजी से से जाते हो चले जाओ मगर सोचो
मेरी आगे सफ़र में ही ज़रूरत हो गयी तो फिर
कहा तो है अभी तुमने कहो कुछ भी अभी मुझसे
मगर बातों से मेरी गर शिकायत हो गयी तो फिर
मकानों के लिये सारे शजर ही काट डाले हैं
अगर नाराज़ हम सबसे ये कुदरत हो गयी तो फिर
शरारत हो सदा छोटी नहीं करना बड़ी हरगिज़
कभी गर जान पर भारी शरारत हो गयी तो फिर
ग़लत सा ख़्वाब देखा है अभी भी ज़ह्’न है भारी
अभी ‘आनन्द’ सोचे है हक़ीक़त हो गयी तो फिर
– डॉ आनन्द किशोर