कत्थई गुलाब-शेष
“जानती है नीरू,,,
जब भी शाम होती है न,,मेरा मन एक अजीब से अनुभव में खो जाता है।मुझे अपने आस-पास ईश्वर के होने का एहसास होता है।
शाम बड़ी सुंदर होती है,नीरू,,शाम में,हम चाय की चुस्कियां लेते हुए, कितनी हीं यादों को फिर से जीते हैं।
शाम को जब तू आती है न,,तेरे साथ बातें करना,,मुझे मेरी शाम का सबसे खूबसूरत हिस्सा लगता है,,,,
पता नहीं कब ये समय भी एक याद बनके रह जाए।”
निरंजना खिलखिला के हँस देती है।
सुलेखा मुस्कुरा भर देती है।
अचानक, माँ को आते हुए देखा उसने।
माँ जब तक बेल बजातीं,सुलेखा उससे पहले ही पहुँच गई दरवाज़े पर।
माँ आज बहुत थकी लग रही थीं,थकी तो वो रोज़ हीं लगती हैं,,मगर,,,आज,,,
चेहरे पर आईं लकीरें,,,कुछ और हीं कहानी बयां कर रहीं थीं।
सुलेखा चाय लेकर आई,माँ तब तक हाथ-मुँह धो चुकी थीं।
एक गहरी साँस लेते हुए उन्होंने आँखें बंद कर लीं।
माँ चुप थीं,,,सुलेखा भी।
कभी-कभी चुप्पी और सन्नाटा,,,दोनों हीं बात करने के लिए एक नये विषय को जन्म देते हैं।
और वो विषय, न जाने कब बहस का मुद्दा बन जाता है।
सुलेखा अलसाई- सी माँ के पास आकर बैठ गई,
“सिर दबा दूँ”
माँ ने ना में सिर हिला दिया।
सुलेखा हीं तो माँ के सिर का दर्द थी,,,,क्या ही वो इसे दूर कर पाती।