*** ” कच्चे मकान ……! ” ***
* मकान कच्चे थे ,
पर अपने इरादे बुलंद और पक्के थे।
न कोई चाह , और न ही कोई अपना सपना ;
पर.. जिन्दगी के सफ़र बहुत ही अच्छे थे।
परिवर्तन और बदलाव भी ,
कैसी एक अज़ब -गज़ब की प्रक्रिया है।
शायद…..! यह स्वभाव ,
प्रकृति की सतत् प्रतिक्रिया है।
ओ कच्चे मकान आज ,
सारे के सारे पक्के हो गये हैं।
ओ परिवार , रिश्ते-नाते , विश्वास-संबंध ,
आज सारे के सारे कच्चे हो गये हैं।
कितना सुकून था……! ,
और अपने पन का महक था ;
उन कच्चे मकानों में ।
मिलता नहीं है आज , और न ही मिलेगा … शायद ! ;
इन महंगे-महंगे-मकानों में।
अपना बचपन कितना मस्त था ,
और तन-मन कितना स्वस्थ था ;
उन कच्चे मकानों के तंग गलियों में।।
आज मस्त नहीं , हम ब्यस्त हैं ,
मानवता भी पस्त है ;
लोग असहिष्णुता से त्रस्त हैं ,
इन पक्के महलों के चौरस गलियों में।।
** अपना घर बेशक कच्चा था ,
बरसाती बूँद टप-टप टपकता था।
होता था कभी-कभी पानी का , अत्याधिक रिसाव ;
लेकिन…! न ही मानवता का , और
न अपनेपन का था कोई इतना अभाव।
आज अपना मन बहक गया है ,
मानवता हमेंशा के लिए मन से मिट गया है।
जो कभी अमूल्य था , और कभी अतुल्य था ;
ओ अपनापन , न जाने कहां खो गया है।
कच्चे मकानों के , कच्चे चबूतरों से ;
ओ शाम वाली ठिठोलियाँ ,
अब गायब सी हो गई है।।
ओ चाँदनी रात कितना सुकून था ,
ओ दादा-दादी
और नाना-नानी की बात कितना मशहूर था।
आज चारों तरफ चमक-दमक ,
और बनावटी रोशनियों की उजियारा है।
वातानुकूलित-शीतल हवायें हैं ,
और रेस्तरां ( Hotel) पाँच सितारा है।
फिर भी….! बेचैनी बढ़ गई है ,
अब हर पल और हर रात ,
अपनों से अपनेपन को परायी करने वाली सी हो गई है।
लोगों से लोगों के प्यार और सद्भभाव-सद्विचार ,
अब तो कहावत वाली सी बात हो गई है।।
*** हम कहते हैं ,
कच्चे मकान तोड़ कर ,
हरापन-हरियाली छोड़ कर ;
कितना विकास कर गए हैं।
हम कहते हैं ,
ओ अपनेपन का परिवार ;
ओ सुखी का संसार छोड़ कर ,
अंतरिक्ष की ऊँचाई में , प्रगति का पथ गढ़ गए हैं।
पर……! सच तो यह है यारों ,
कहता है ये पागल-आवारा ;
न तोड़ो किसी का सहारा।
” सारे रिश्ते-नाते तोड़ कर , प्रेम का बंधन छोड़ कर ; ”
” अहम् का सक्त घर , घृणा का मंजर , ” ले
अपनों के ” अपनेपन से ‘ निकास ‘ कर गए हैं।
” अपनेपन से ‘ निकास ‘ कर गए हैं।।
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छ.ग.)