और मेरा बचपन यू ही निकल गया
नियति ने भी मेरे साथ कैसा खेल, खेल गया ।
बनना कुछ और था, बन कुछ और गया ।
छोटेपन से ही मेरे सर जिम्मेदारियो का बोझ आ गया ।
और मेरा बचपन यू ही निकल गया ।
औरो की तरह मौज मस्ती, खेलकूद, लुका छुपी
बस सपना ही रह गया ।
जिस समय हाथ मे कलम होनी थी ।
कुदाल, हंसिया, गेती थम गया ।
और मेरा बचपन यू ही निकल गया ।
हमउम्र बच्चो के तन पर साफ सुथरी खाकी ड्रेस फबती थी ।
मेरे मैले तन पर बेतरतीब, चिथड़े, फ़टे कपड़े होते थे ।
सड़को, नालो, गंदी बस्तियों से मेरा खासा रिश्ता जुड़ गया ।
और मेरा बचपन यू ही निकल गया ।
अनपढ़ ही रह गया मैं, पढ़े लिखो का जमाना है ।
परिस्थिति ने तय किया, कब पढ़ना है, कब कमाना है ।
यौवन रुपये जोड़ने में बीता, बुढापा समय के साथ ढल गया ।
और मेरा जीवन यू ही निकल गया ।
© गोविन्द उईके