औरत
महिलाओं ने खुद को होने दिया बाजार का सामान
मैं नहीं बता सकती वो पहली महिला कौन थी…
कब थी, कहां की थी
धरती के किस हिस्से की थी
मगर वो थी तो जरूर
जिस ने सजाया अपने बालों को सुगन्धित मोगरे से,
चमेली के तेल से किया सुवासित
अपने कमल नयनों में भरा आस का काजल
बनाया अपने आंचल को बादल
झुमका, कंगन, पायल, नथिया में नाथा अपने अस्तित्व को
और सौंप दिया समाज को
अपने भीतर दफन करके औरत को बस अप्सरा कहलवाने के लिए
कि प्यार करो उसके वाह्य को
अंदरू जलने दो तड़पने दो
मजाक तो ये कि उन कठोर हाथों को सौंपा अपनी कोमल सुंदरता
जिनकी तमाम बदसूरती में भी ढूंढ़ लेती थी सुंदरता
झाड़ू जैसे दाढ़ियों को भी अपनी गुलाब सी होठों से चूम लेती
छातियों में उग आए जंगल में भी स्वर्ग तलाश लेती
मटके जैसे बेडौल पेट को भी पुरुष सौंदर्य का हिस्सा मान लेती
अरे सिगरेट और शराब के बदबू को भी
सुगन्धित द्रव से सुवासित समझ लेती
अपनी तमाम संभावनाओं को दफन कर दिया खुद को सुंदर बनाने में
और पीढ़ी दर पीढ़ी बोती रही अपनी जईयों के मन में
सुंदर बने रहने और सुंदर कहे जाने में ही प्रेम खिलता है
मैं नहीं जानती उस औरत को
जिस ने सभी औरतों को श्राप दिया
मोम की सुंदर गुड़िया होने की
मैं बिल्कुल नहीं जानती…
~ सिद्धार्थ