औरत का अपना घर
झूठ कहते है लोग ,
औरत का घर होता ।
सही मायने में औरत का ,
कोई घर नहीं होता ।
औरत के बिना माना कोई ,
घर नहीं होता ।
मगर कौन है जो इसे ,
वास्तव में स्वीकार करता ।
वरना कोई पति मात्र ,
मीठी मीठी बातें करके ,
अपनी पत्नी को अंधेरे में नहीं रखता ।
प्रत्यक्ष रूप से वोह कहता कुछ है ,
और करता है कुछ और।
उसकी कथनी और करनी में,
बड़ा फर्क है होता ।
कितनी दुख की बात है ,
जिस घर को उसने घर बनाया ,
अपने अरमान ,अपने सपने ,
अपनी आशाएं , अपनी मेहनत ,
अपना दिल और दिमाग भी लगाया ।
वही उसका अपना नहीं।
जहां उसके मन का कुछ भी न हो ,
वोह उसका घर हो भी कैसे सकता !
जहां मर्जी ही सिर्फ पति की चलनी है ,
तो पत्नी की मर्जी का तो कोई ,
सम्मान ही नहीं रह जाता।
कोई मूल्य ही नहीं रह जाता।
हाय! कितनी भोली होती है औरत ,
जो तमाम उम्र एक ही ख्वाब में,
जीती और मरती है ।
और जब आंख खुलती है ,
तो एहसास होता है उसका कुछ भी नहीं ,
यह तो मात्र झूठा सपना था ,
जो टूट गया।
वास्तव में उसका कुछ भी नहीं।
कुछ भी नहीं !!
बस एक क्लेश ,वेदना ,संताप ,मन में है ,
है रह जाता।
जो आंखों से बहते आंसुओं ,
में स्पष्ट है झलकता ।
मगर बदनसीब ! बद्दुआ भी नहीं ,
दे सकती।
आखिर औरत जो ठहरी !
दया ,ममता ,त्याग और समर्पण की मूर्ति ।
पुरुष इसी का तो सदा से ,
लाभ उठाता है आया।