ओ माँ… पतित-पावनी….
अनंत विस्तार ले
सहस्त्र धारा संग
कर हुंकार
तारने उतरी
अमरलोक से
विक्षुपगा
अपार जनसमूह को।
विनय भागीरथ की
पूर्ण करने मनोरथ
तारने प्रजनक
किया पदार्पण
खोल जटा अनघ।
युग बीते,
अघ हरते,
ओ गंगा! ध्रुवनंदा!…
आप कभी
थकी नहीं
प्राणों में सामर्थ्य भरती रही
बहती रही।
प्रतारक! घाघ!…
हम मानव
निर्लज्जतापूर्वक
करते रहे सदा
पंकिल आपकी धार
कर शुद्धता का तिरस्कार
और करते रहे क्षमा याचना
ओ माँ!… तारना हमारे सभी पाप
क्षमा करना जघण्य अपकर्म
उतारे आरती
करें गुणगान
हरना हमारे अपराध
आप हो माँ…. आप हो माँ….
पतित-पावनी आप हो माँ!…
संतोष सोनी “तोषी”
जोधपुर (राज.)