*ऐसे भला कोई माँगे मानता है ! (हास्य व्यंग्य)*
ऐसे भला कोई माँगे मानता है ! (हास्य व्यंग्य)
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हरिया बाबू बड़े उदास हैं। कल तक आंदोलन बढ़िया चल रहा था । तेरहवाँ दिन था । धुआंधार भाषण होते थे । सामूहिक रूप से सब लोग भंडारे की पूड़ियाँ और रायता सेवन करते थे । मगर एक झटके में सब कुछ नष्ट हो गया । जिस माँग को लेकर आंदोलन किया जा रहा था ,बड़े साहब ने वह माँग एकाएक मान ली । किसी को उम्मीद नहीं थी ।
हरिया बाबू के तो सिर पर मानो घड़ों पानी पड़ गया । किसी ने आकर जब खबर दी तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ । सोचने लगे – “विधाता इतना निर्दई नहीं हो सकता कि हमारा आंदोलन ही नष्ट कर दे !” मगर जो होनी थी वह तो हो कर रही । सब से पूछा । सबने यही कहा कि बड़े साहब ने माँग मान ली है ।
हरिया बाबू को अंत तक विश्वास नहीं हुआ लेकिन घंटे -दो घंटे में बड़े साहब का टेलीफोन भी हरिया बाबू के पास आ गया -“राम-राम हरिया बाबू ! आप की माँग हम ने मान ली है । अब तो मुस्कुरा दीजिए ! ”
बेचारे हरिया बाबू खून का घूँट पीकर रह गए । सोचने लगे -“हम तो समझते थे ,यह बड़े साहब बहुत जिद्दी हैं और दस-बीस साल तक भी हमारी माँग नहीं मानेंगे । मगर यह तो मोम की तरह पिघल गए । एक क्षण में एकाएक हमारी माँग स्वीकार कर ली । अब इनका क्या होगा यह तो यह जानें, लेकिन असली सड़क पर तो हम अब आए हैं । अब तक तो मजे में सड़क जाम करके धरना-प्रदर्शन चल रहा था । गुलछर्रे उड़ाए जा रहे थे लेकिन अब फंडिंग कौन करेगा ? राशन-पानी कौन भिजवाएगा ? कौन पत्रकार – संवाददाता आकर हमारा इंटरव्यू लेगा ? क्या हम यूँ ही मुँह लटकाए हुए सड़क पर बैठे रहें या अपने घर जाकर एक कमरे में बंद होकर सो जाएँ ?
हरिया बाबू की समझ में कुछ नहीं आ रहा था । वह एक ही बात को बार-बार हर आने वाले से कह रहे थे – “ऐसा नहीं हो सकता । बड़े साहब हमारी माँग स्वीकार नहीं कर सकते । ” लोगों ने बहुत समझाया-” हरिया बाबू ! अब जो होना था, हो चुका । परिस्थितियों की त्रासदी को स्वीकार करो । यह विधाता का विधान ही समझो कि बड़े साहब ने तुम्हारी माँग स्वीकार कर ली और अब तुम्हारे आंदोलन का कोई औचित्य नहीं बचा ? ”
हरिया बाबू ने किसी की एक न सुनी। वह अभी भी सब से यही कह रहे हैं – “हमारा आंदोलन समाप्त नहीं होगा । हम सड़क पर से नहीं हटेंगे । हमारी मांगे पूरी करो !’
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451