एहसासात
कभी उफ़क में डूबते हुए मेहर
को देखता हूं ,
कभी च़रागों से ऱोशन झरोखों
को देखता हूं,
कभी श़ब -ए- माहौल में खामोश क़मर के
सफ़र को देखता हूं ,
कभी सहर होते ही कमसिन कलियों पर
मुस्कुराती हुई श़बनम़ को देखता हूं ,
कभी समुंदर किनारे लहरों की
उठती गिरती आमेज़िश को देखता हूं ,
कभी दश़्ते सफ़र में शज़र पर परिंदों के
श़िद्दत से बनाए घोंसलों को देखता हूं ,
कभी मासूम बच्चे के मुस्कुराते चेहरे के
नूर को देखता हूं ,
कभी मेहनतकशों के पसीने से नहाए
जिस्म़ों की चमक देखता हूं ,
कभी मां की गोद में सिमट कर सोते छौने की
बेखबर नींद को देखता हूं ,
सोचता हूं, जितनी भी है,
ये ज़िंदगी, इतनी भी बुरी नहीं है ,
गर्दिश -ए अय्याम में भी,
खूबसूरत एहसासात की कमी नहीं है ,