एक हरा पत्ता
आज मैं
दोपहर में
गुनगुनी धूप में
अपने घर की छत पर
चहलकदमी कर रही थी
न जाने कहां से
एक हरा पत्ता
मेरी ही तरह तन्हा और
कुछ कुछ सिमटा सिकुड़ा सा
मेरे कदमों से आकर
लिपट गया
मेरे बदन के रोम रोम को
चूम गया
हवा चल रही थी
हवा के साथ बहता बहता
कहीं से आया था
हवा चलती रही
बहती रही पर
मेरे सानिध्य में आने के पश्चात
इसे न जाने क्या हुआ
यह जैसे एक जगह
जहां मुझसे मिला था
वहीं ठहर गया
ऐसा लग रहा था कि
जैसे स्थापित हो गया हो यह
एक शिला सा
न जाने कौन सा था वह
बन्धन जिसने इसे
बान्ध दिया था मुझसे
दुनिया की कोई ताकत अब
इसे हिला नहीं पा रही थी
मुझसे जुदा कर नहीं पा रही थी
हमें उम्र भर कितना प्यार
मिलता है
किस किस तरह से
न जाने कहां कहां
किन किन रूपों में
अंजान राहों पर
जैसे हो
सदियों का बिछड़ा
कोई
अपना सा
लेकिन कोई प्यार करने
वाला भी क्या करे
जब उसके निस्वार्थ प्यार को
गर न पहचाने कोई।
मीनल
सुपुत्री श्री प्रमोद कुमार
इंडियन डाईकास्टिंग इंडस्ट्रीज
सासनी गेट, आगरा रोड
अलीगढ़ (उ.प्र.) – 202001