एक सामूहिक हत्या थी
भोपाल गैस त्रासदी पर कुछ बह निकले व्यथा के शब्द
इक सामूहिक हत्या थी
किसको था मालूम कि उस दिन रात वो ऐसी आएगी
एक रात की निद्रा वो , चिर-निद्रा में ढल जाएगी
पूंजीवाद का वो दानव यूँ , सबको निगल जाएगा
रातों-रात यूँ एक शहर की दुनियाँ बदल जाएगी
दुनियाँ भर के अखबारों ने लिखा कि बस दुर्घटना थी
मानवता के इतिहास में , बहुत बुरा एक सपना थी
लेकिन कब तक हरेक बात पर भाग्य पर रोना होगा
कोई माने या ना माने पर ये इक सामूहिक हत्या थी
घबराता हूँ सोच के ये , उस रात का मंज़र क्या होगा
जाने कैसा मौत का तांडव , घर घर के अन्दर होगा
हाहाकार की वो आवाज़े आज तलक भी आती हैं
उस रात आँसुओं का वो जाने एक समंदर क्या होगा
छोटे छोटे मासूमों का दोष था क्या बतलाओ तो
विधवा और अनाथों का , अपराध ज़रा समझाओ तो
उसपर उनके ज़ख्मों पर सब नमक छिड़कते आए हैं
सत्ता के ठेकेदारों तुम आकर मुँह , दिखलाओ तो
अन्यायों की पराकाष्ठा , इससे ज्यादा क्या होगी
हत्यारों और सरकारों की , और इन्तिहाँ क्या होगी
साल हुए बत्तीस अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है
अनंत दर्द और ज़ख्मो की यहाँ और दास्ताँ क्या होगी
सुन्दर सिंह
03.12.2016