एक व्यथा
जानती हूँ मरीज़ दिल के हो
ब्याह दोगे तो सोचना न मुझे,
बेटियों की नहीं है क़द्र कोई
नाज़ो नखरे से पालना न मुझे,
मैं बुलाऊँ तुम्हें,तुम आ न सको
दूर इतना भी ब्याहना न मुझे,
कोई आदेश दे तो मिल पाऊँ
ऐसी रस्मों पे वारना न मुझे,
दम तो घुटता रहे और मर न सकूँ
ऐसे बंधन में बाँधना न मुझे,
मैं उधर जाऊँ तो न आऊँ इधर
टुकड़ों- टुकड़ों में काटना न मुझे,
गेहूँ के दानों -सा मैं पिस जाऊँ
हल के बैलों -सा जोतना न मुझे,
कोई खुद्दार और ग़रीब सही
लोभ -अग्नि में झोंकना न मुझे,
और अगर ये न कर सकोगे तुम
थाने -थाने में ढूँढ़ना न मुझे,
और एल्बम उठा पुराना कोई
रो के हसरत से देखना न मुझे,
देह की चोट मेरे सह न सको
बाबा,,इतना भी चाहना न मुझे।।