एक विस्थापित कश्मीरी पंडित का दर्द
रोम रोम में दर्द की दरिया, दिल दर्द का बड़ा समंदर है
अंतहीन दर्दीला जीवन, जिंदा लाश के अंदर है
कश्यप ऋषि की कर्मभूमि, जो काश्मीर कहलाती है
स्वर्ग से सुंदर यह घाटी, अब आतंक से जानी जाती है
अपनी जन्मभूमि में हम सब, मिलजुल कर के रहते थे
खुशहाली और अमन में, संग संग हंसते गाते थे
सुंदर घर और बाग बगीचे, अच्छा व्यवसाय हमारा था
कश्मीरियत थी संस्कृति, सनातन धर्म हमारा था
आया 90 का दशक, संकट के बादल मंडराए
इस्लामिक आतंकवाद में, पंडित से काफिर कहलाए
छोड़ो काफिर काश्मीर हमारा, या इस्लाम कबूल करो
बहन बेटी का करो निकाह,या फिर मौत कबूल करो
सांसत में थी जान हमारी, रोजाना धमकी मिलती थी
जिसने भी प्रतिकार किया, फिर लाश ही उसकी मिलती थी
मेरा लड़का था नौजवान, देशभक्त था खून गरम
रक्षा में बहिन बेटियों की, निभा रहा था सदा धरम
दृढ़ता से उसने एक दिन, आतंक का प्रतिकार किया
भून दिया उसको उस दिन, जीवन भर का दर्द दिया
छोड़ गया दो बच्चे विधवा, बुड्ढे बुढ़िया के सहारे
न था जीवन का मोह मुझे, जिऊं मैं किसके सहारे
बदहवास मेरी बेटी एक दिन, कॉलेज से घर आई
सीधे कमरे में चली गई, फांसी से जान गंबाई
कमरे में जब पहुंचे हम तो, उसने पत्र लिखा था
खत्म हुआ मेरा तो सब कुछ, बच्चों को आप बचाना
छोड़ जाओ घर द्वार, अपनी अस्मत जान बचाना
उसके सीने पर हैवानों ने, पाकिस्तान लिखा था
छोड़ जाओ कश्मीर, उसकी जांघों पर लिखा था
न सुनते थे पुलिस प्रशासन, न कोई पड़ोसी सुनते थे
हम अपने दुख की दरिया में, तिल तिल कर मरते थे
एक दिन खबर आई, घरों से सात घसीटे मारे
एक गांव में दो दर्जन पंडित, खड़े लाइन से मारे
हाहाकार मचा घाटी में, अन्याय आतंक मचा
जान बचाकर पंडित भागे, उनकी कहीं न जाए व्यथा
न कोई सरकार न नेता, हमारे साथ खड़े थे
मां बहनों की अस्मत, जान के लाले हमें पड़े थे
19 जनवरी 90 को हम, भूल नहीं सकते जीवन में
लाखों पंडित भरे ठसाठस, भटक रहे थे दर-दर में
आलीशान घरों को छोड़ा, सेब के बाग बगीचे
पड़े हुए थे सड़कों पर, सुंदर छोड़ गलीचे
करना पड़ा मेहनत मजदूरी, मां बहनों ने करी सिलाई
अपने बच्चों के खातिर हमने, दर-दर ठोकर खाई
नहीं भूल सकते वह मंजर, जो हम सब ने भोगा है
बसा पाएगा कोई हमें, या धोखा ही धोखा है
घर जमीन धन दौलत परिजन, क्या क्या हमने खोया है
30 साल से हर विस्थापित, खून के आंसू रोया है
कितनी आईं गईं सरकारें, किसने हमको मान दिया
अपने घर में ही हमको, आतंक ने ऐंंसा दर्द दिया
30 साल से सिसक रहे हैं, न धरना न कहीं प्रदर्शन
सीसीए और एनआरसी पर, क्यों मचा हुआ है मर्दन
देशवासियों दर्द हमारा, आपके दिल तक पहुंचेगा
पहुंच सके सरकारों तक , कब तक न्याय मिलेगा ?