एक मुसलसल ग़ज़ल
दर्द देते है वो नफासत से
बाज़ आते नही हैं फितरत से
तल्ख़ लहज़ा भी शख़्त तेवर भी”
हो गए नर्म सब मुहब्बत से
अर्श पर माहो-आफताब भी जान”
मात खाते हैं तेरी सूरत से
तेरी ज़ानिब से जो भी मिलती है”
मुझको उल्फ़त है उस अज़ीयत से
आती है हर्फ़ हर्फ़ से ख़ुशबू”
मुझको लिक्खे तेरे हरिक ख़त से
बिन तुम्हारे तो बेकसो-लाचार”
कितना लड़ता रहा मैं खलबत से
क़त्ल करने का है इरादा क्या”
देखते हो जो इस नज़ाकत से
ये सिवा सच है इश्क़ की वहशत”
और बढ़ती है ग़म-ए-फुरकत से
सिवा संदीप गढ़वाल