एक मजदूर की व्यथा
भूख अशिक्षा और गरीबी से, वतन में मैं मजबूर हुआ
पेट की आग बुझाने भैया, शहर शहर मजदूर हुआ
लाचारी बेबसी मुफलिसी, पेट से लेकर आया
इस पापी पेट ने ही मुझको, शहर शहर भटकाया
हाड़तोड़ मेहनत से भी, रोटी कपड़ा मकान न मुझको मिल पाया
मुन्ना भी अब बड़ा हो गया, साथ मजूरी करता है
मुनिया की शादी कर दी, वह भी झुग्गी में रहती है
झाड़ू पोछा और बर्तन से, गाड़ी उसकी चलती है
बिस्तर पकड़ा मुनिया की मां ने, टीवी ने उस को घेर लिया
जैसे तैसे चलता था घर, इस केरोना हमको तोड़ दिया
न पैसा न काम हाथ में, न खाने को रोटी
रोज कमाने खाने वालों की, ऐसी किस्मत फूटी
ये शहर भी मैंने बनाया,जो आज हो गया पराया
मुन्ना मुनिया छोटे थे, तब इस शहर में आया
ये सड़कें ये मल्टी, इनमें खून पसीना मेरा है
पर इस शहर में अब तो, कोई नहीं मेरा है
चारों तरफ अंधेरा है
इसीलिए भैया जी, पैदल गांव की ओर चले
दिल का दर्द पांव के छाले, आंसू भी अब सूख गए
किसको अपनी व्यथा बताऊं, हम कितने मजबूर हुए
मेरा जीवन तो भैया, एक दुख भरी कहानी है
अंतहीन कष्टों में मेरी, बीत रही जिंदगानी है
राम-राम कह दिया शहर को, अब लौट नहीं शहर आएंगे
नहीं मिलेगी रोटी पूरी, आधी में काम चलाएंगे