एक पाव आँटा
एक पाव आंटा
मनुष्य दौड़ रहा है
इधर उधर भटक रहा है
मारा मारा फिर रहा है
भोजन के लाले हैँ
गाल धँसे प्याले हैँ
मोहताज है मजदूरी के लिए
पेट पूरी के लिए
इंसान है
भगवान है वह
इसे कौन मानता है
लोग लाकर सजा रहे हैं
मजा ले रहे हैं
रात में नोट गिन रहे हैं
जाति समीकरण से वोट
गिन रहे हैं
भविष्य में जी रहे हैं
वर्तमान का शोषण कर रहे हैं
मजदूर की व्यथा से बेफिक्र हैं
उनके प्रति न कोई जिक्र है
जिक्र है भी तो उन्हें चूसने का
फिर भूलने का।
हाय रे गरीबी!
तू कितना मासूम है?
दिल में एक पाव आंटे की धूम है
वह भी जब नहीं मिलता
खुद को टटोलता
अपनी नियति को कोसते
दुख के आँसू पी कर
रात को अनिद्रा की भेंट चढ़ाये
आँख मीजते
भोर की किरण निहारता
और फिर वही एक आंटे की धुन।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।