एक घर था…
एक घर था…
एक घर था
ईंट, मिट्टी गारे का मकान
चूल्हा था, लकड़ी थी
फूंकनी थी…
मां फूंक मारकर लकड़ी जलाती
आंसू टपकाती
खांसी उठती…धौं धौं करती
फिर जुट जाती।
एक घर था…
छोटा सा घर..
सब साथ होते
बात करते/ खाना खाते
खेलते-कूदते, सो जाते
घर अब भी है
सीमेंट का, ईंट का
मगर न वो चूल्हा है
न फूंकनी, न मां
कोई किसी से नहीं बोलता।।
सबकी अपनी दुनिया है
सिमटी हुई दुनिया….
हाथ में देश है, विदेश है
बस, किसी के पास घर नहीं।
सूर्यकांत