एक कहानी की मौत
एक कहानी की मौत हो गई
चौराहे पर चार पन्नों में
लिपटी पड़ी थी
क्या दफ़्न करना भूल गए
मारने वाले ???
वह कहानी “एक हादसे से”
जन्मी थी शायद
तभी तो ज़िंदगी भर बस
चीख़ो-पुकार ही सुनती रही
या यूंँ कहिए…. सुनाती रही
पर उस कहानी के चार पन्नों को
किसी जिल्द की दो बांँहों ने
थामा नहीं
जिनमें छुपकर वह
एक पूरी किताब बन पाती
पन्नों में थी ना….. तो कहीं कभी
एक पन्ना किसी के हाथ लगा
तो दूसरा किसी और के
कहीं इकट्ठी हो भी गई
तो भी उल्टी पुल्टी
क्या ख्याल है ???
क्यों मरी ???
सच बोल गई होगी शायद कहीं
बस सुनने वालों ने
लकीरें ही मिटा दीं
या यूंँ कहिए कि
हादसे की कहते-कहते
अपनी कह गई होगी
अब अपनी कहने वालों
का तो यही हश्र होता है
मरने दो…….. मर ही तो गई
कहानियों का क्या है
रोज़ ही पैदा हो जाती हैं ।।