उम्मीद
उम्मीद कभी नहीं मरती।
हम सोचतें हैं कि हमनें उम्मीद मार ली,
लेकिन एक उम्मीद मार लेना,
सभी उम्मीदों से छुटकारा पा लेना नहीं होता।
हम तो इंसान हैं,
कायनात तक उम्मीदों पर टिकी हैं,
सोचो क्या होता,
जब हर प्रलय के बाद,
सृष्टि ना रखती कोई उम्मीद नए जीवन की,
नव अंकुर की,
हमारा अस्तित्व ही क्या होता,
और ना होती यह सोच,
ना उम्मीदें और ना इच्छाएँ।
फिर तो सृष्टि स्वयं ही मोक्ष के द्वार पर खड़ी होती,
सृष्टि ने स्वयं को किसी ना किसी बंधन से बाँध रखा है,
फिर क्या मोक्ष की संकल्पना,
सृष्टि के नियमों के विरुद्ध नहीं है?
किसी भी कार्य के होने में अगर उम्मीद हो,
कार्य के सम्पूर्ण होने को बल मिलता है।
मुमूक्षु भी तो मोक्ष प्राप्ति तक,
मोक्ष प्राप्ति की उम्मीद में ही तो रहता है।
सृजन के अंकुर से,
काल के ग्रास तक,
सब कुछ उम्मीद पर ही टिका है।
कवि:- किशन ‘प्रणय’